बीजाक्षर मंत्रों का रहस्य एवं वैज्ञानिक विश्लेषण

जिस तरह बीज में वृक्ष, फल, फूल आदि सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं और समय बीन पाकर व्यक्त रूप में दृष्टिगोचर होने लगते हैं, उसी तरह बीजाक्षर में भी सूक्ष्म रूप में शक्ति रहती है। उस शक्ति के विस्फोट अथवा विकास के लिए साधना रूपी जल और खाद की आवश्यकता रहती है, मंत्रसिद्धि के मूल में बीज मंत्र का विस्फोट ही विशेष महत्व का है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने नाड़ी संस्थान (पिण्ड) के केन्द्रों या क्षेत्रों में विशेष उद्देश्य वृक्ष के लिए चुने गए बीजाक्षरों की स्थापना करके और उसके अविराम प्रवाह की धाराओं अल (धनात्मक सूक्ष्म ऊर्जा के प्रवाह) को वहाँ केन्द्रित करके केन्द्रों के उपयोग को ढॐढ निकाला है। बीजाक्षर या इसके समान स्पन्दन सच्चे अर्थ का उनकी कारणावस्था में साक्षात्कार कराते हैं। साथ ही विश्व विधान (ब्रह्माण्ड) की योजना में करते हैं या जब इस पद्धति में कुछ यौगिक प्रयत्न की आवश्यकता पड़ती है, जो कि गुह्य ज्ञान के साधारण साधक को और समान रूप भी उसका साक्षात्कार पहुँच से बाहर होता है तब साधारणतया उसे अपेक्षाकृत सरल से प्रभावशाली विधि को अपनाने की सलाह रूचिपूर्वक अनेक वर्षों दी जाती है। यह पद्धति है का जप। वर्ण या अक्षरों की यह जप चेतना के स्तर पर सूक्ष्म स्पन्दन पैदा करने अनेक जनों का इसे मन से परे स्थित सत्यों के सत्य (परमपिता परमेश्वर को, पाने के हेतु प्रस्तुए है। के लिए किया जाता है। जप के द्वारा मन में धारण किए हुए वर्ण, ध्वनि की मनापूर्णत कयों से जाग्रत होते हैं, जो कि देवताओं के स्वाभाविक स्वरूप के निकट पहुँचाता है।

वर्णों की महत्ता

संस्कृत एवं हिन्दी वर्ण केवल सांकेतिक ध्वनियाँ ही नहीं है, उनके मूल में विश्व संस्था (ब्रह्माण्ड) और शरीर संस्था (पिण्ड) के सम्पूर्ण संस्थापक संगठन और संहारक (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) तत्व विद्यमान है। एक ओर जहाँ उनके (वर्णों का मंत्रों) द्वारा काम, क्रोध लोभादि उद्घासित होकर मनुष्य की आत्मा को अत्यन्त स्वार्थी और संकुचित बना डालते हैं वहीं वर्ण-समुदाय व्यक्ति को अधिक दृष्टि से अत्यन्त उदार और मुक्त करने की - क्षमता भी रखता है। यह सिद्ध है कि वर्ण ही ज्ञान-विज्ञान की कुंजी है। वर्णों में सूक्ष्म ध्वनियाँ विद्यमान रहती हैं। जिससे नाद-तत्व की उत्पत्ति होती है। नाद तत्व का सबसे पहले आरम्भ मूलाधार चक्र से होता है। फिर वह मणिपूरक और अनाहत चक्रों में आता है, जहाँ प्राण और मन से उसका मिलन होता है और वह पश्यन्ती तथा महात्मा का रूप धारण कर लेता है। वही नाद तत्व गले में आता है और वैखरी रूप ले लेता है। जैसे बीज में वृक्ष, फल और फूल सूक्ष्म रूप से निवास करते हैं, उसी तरह से नाद तत्व में वर्ण राशि रहती है। आज के विज्ञान युग का मानव, ध्वनि के चमत्कारों से अपरिचित नहीं है। मनोरंजन से लेकर रोग निवृत्ति तक के सभी क्षेत्रों में इसके आश्चर्यजनक आविष्कार मिल रहे हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में तो इसका प्रयोग हजारों वर्ष पूर्व से होता चला आ रहा है।

बीजाक्षर मंत्रों का वैज्ञानिक सिद्धान्त

वर्णों या बीजक्षर की रेखाकृतियों का विज्ञान भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योकि इनका निर्धारण अनुमान या उच्चारण की सुविधा से कुछ विशेषज्ञों अथवा विद्वानों द्वारा नहीं किया गया है। दुनिया की अन्य लिपियों का कारण बाह्य भौतिक धारणा है। जैसे चीन की लिथि वृक्ष आदि प्राकृतिक वस्तुओं को देखकर बनाई गई है। संस्कृत और हिन्दी की वर्णमाला अलौकिक है। यह ऋषियों की समाधि अवस्था की अनुभूतियों का परिणाम है।

मन्त्रार्थ

  • यंत्र साधारण शब्द या शब्दों का समूह नहीं है अपितु इसमें एक विशेष निहित शक्ति को समझना साधक के लिए आवश्यक होता है।
  • साधक को चाहिए कि वह मंत्र के के अक्षर एवं शब्द के रहस्य को उसके अर्थ को, उसमें निहित शक्ति को समझें।
  • सत्यत्येक बेता और द्वापर इन तीन युगों में श्रुति और स्मृति के अनुसार पूजा होती थी ।
  • तन्त्रोत्तर ग्यान और बीज मंत्र ही कलियुग में फलदायक हैं।
  • वेद स्मृति और पुराण में जो बताये गये हैं, वे इस युग (कलियुग) में प्रशस्त नहीं हैं। बीज मंत्र कलियुग में शीघ्र • फल देते हैं और इनका अणुबम के समान प्रभाव परिलक्षित होता है।
  • पहला और समस्त में समभाव से व्यापक शब्द “ॐ” है, जो महा-बीज है, क्योंकि यह अन्य सबका और सभी संयुक्त शब्दों का मूल है।
  • बीज मंत्र वह मंत्र है, जिसमें केवल एक ही वर्ण हो।
  • प्रत्येक देवता का बीज होता है। इस प्रकार “क्री”, “ह्रीं” और “र” के देवता क्रमशः काली, माया और अग्नि। किसी भी देवता या देवी की पूजा में जो मंत्र मुख्यतया प्रयुक्त होता है वह उसका “मूल मंत्र” कहा जाता है।
  • इसकी ध्वनियों से उपासक की अस्थिर प्रवृत्तियाँ केवल नियमित ही नहीं बल्कि उसकी साधना शक्ति के फलस्वरूप उसमें भी देवता स्वरूप भी आविर्भूत होता है।

कुछ बीज मंत्र और उसमें निहित शक्ति स्वरूप तथा उसका रहस्य निम्नानुसार है।

संस्कृत एवं हिन्दी वर्ण केवल सांकेतिक ध्वनियाँ ही नहीं है, उनके मूल में विश्व संस्था (ब्रह्माण्ड) और शरीर संस्था (पिण्ड) के सम्पूर्ण संस्थापक संगठन और संहारक (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) तत्व विद्यमान है। एक ओर जहाँ उनके (वर्णों का मंत्रों) द्वारा काम, क्रोध लोभादि उद्घासित होकर मनुष्य की आत्मा को अत्यन्त स्वार्थी और संकुचित बना डालते हैं वहीं वर्ण-समुदाय व्यक्ति को अधिक दृष्टि से अत्यन्त उदार और मुक्त करने की - क्षमता भी रखता है। यह सिद्ध है कि वर्ण ही ज्ञान-विज्ञान की कुंजी है। वर्णों में सूक्ष्म ध्वनियाँ विद्यमान रहती हैं। जिससे नाद-तत्व की उत्पत्ति होती है। नाद तत्व का सबसे पहले आरम्भ मूलाधार चक्र से होता है। फिर वह मणिपूरक और अनाहत चक्रों में आता है, जहाँ प्राण और मन से उसका मिलन होता है और वह पश्यन्ती तथा महात्मा का रूप धारण कर लेता है। वही नाद तत्व गले में आता है और वैखरी रूप ले लेता है। जैसे बीज में वृक्ष, फल और फूल सूक्ष्म रूप से निवास करते हैं, उसी तरह से नाद तत्व में वर्ण राशि रहती है। आज के विज्ञान युग का मानव, ध्वनि के चमत्कारों से अपरिचित नहीं है। मनोरंजन से लेकर रोग निवृत्ति तक के सभी क्षेत्रों में इसके आश्चर्यजनक आविष्कार मिल रहे हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में तो इसका प्रयोग हजारों वर्ष पूर्व से होता चला आ रहा है।

“गं”
यह गणपति बीज है:
गणेश
अनुस्वार दुःख हर्ता
 
“ऐ”
यह सरस्वती बीज है |   
सरस्वती
अनुस्वार दुःखहर्ता
 
“वं”
यह कामदेव का परिचायक है अर्थात् कृष्ण का ।  
अमृत
अनुस्वार  दुःखहर्ता
 
“ॐ”
इसमें दो स्वर एक व्यंजन है:
ब्रम्हा 
विष्णु 
रुद्र (शंकर)
“हौ”
यह प्रसाद बीज है।
शिव
सदाशिव
अनुस्वार दुःखहरण
हूं
इसे कूर्च या वर्म या महाकाल या निरन्जन बीज कहते हैं।
शिव
ऊ  भैरव
अनुस्वार दुःखहर्ता
“श्री”
इसमें चार स्वर व्यंजन शामिल हैं।
महालक्ष्मी
धन – ऐश्वर्य
तुष्टि
अनुस्वार दुःखहरण
“ह्रीं”
यह शक्ति बीज या माया बीज है
शिव
प्रकृति
महामाया
अनुस्वार दुःखहरण
“दुँ”
यह दुर्गा बीज है।
दुर्गा
3 रक्षा करना
अनुस्वार दुःखहर्ता
नाद विश्व माता
“ग्लौं”
व्यापक रूप विघ्नहर्ता अपने तेज से दुःखों का नाश करें।
गणेश
व्यापक रूप
तेज
अनुस्वार दुःखहर्ता
“क्षौं”
यह नृसिंह बीज है।
क्ष नृसिंह
ब्रम्हा
ऊर्ध्वकेशी
अनुस्वार दुःखहरण
“क्ली”
यह कामदेव का परिचायक है अर्थात् कृष्ण का
कृष्ण अथवा काम
इन्द्र
तुष्टि भाव
अनुस्वार दुःखहर्ता
क्री
यह काली, गोपाल, काम, परा-शक्ति बीज है।
काली
ब्रम्हा 
महामाया
अनुस्वार दुःखहरण 
नाद विश्वमाता
“स्त्री
इसे वधू बीज कहा जाता है।
दुर्गा
तारण
मुक्ति
महामाया
अनुस्वार विश्वमाता

इसी प्रकार कई “बीज” हैं, जो प्रत्येक अपने आप में मंत्र स्वरूप ही हैं, जो निम्नानुसार है:-

शं 

शंकर बीज

फ्रौं  

हनुमत् बीज

ह्रीं

काली बीज

दं  

विष्णु बीज

हं

आकाश बीज

यं 

अग्नि बीज

रं 

जल बीज

लं 

भू या पृथ्वी बीज

ज्ञ 

ज्ञान बीज

भ्रं 

भैरव बीज

 बीजार्थों से स्पष्ट है कि प्रत्येक शब्द में मंत्र है, जिसका एक निश्चित अर्थ है। निश्चित स्वरूप एवं शक्ति है।

“देव-मूर्तियाँ”, यंत्र, मंत्र बहुत प्रकार के होते हैं। प्रत्येक “मूर्ति”, “यंत्र”, “मंत्र” विभिन्न सांकेतिक रहस्यों को सूचित करते हैं। विविध वर्णों के ही समान विभित्र फलों, पुष्पों, वनस्पतियों, शस्त्रास्त्रों, प्राणियों और शरीर के अंगों के भी सांकेतिक प्रयोग ऋषियों द्वारा बहुधा किए गए है। इन सबके रहस्य को जान कर प्राचीन् “मूर्ति कला” को देख कर कुछ लोग वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाते हैं और भ्रम में पड़ जाते हैं। किसी मूर्ति कला से ब्रह्म-ज्ञान, तो किसी से इतिहास का, किसी से काव्य का, किसी से व्यावहारिक ज्ञान मिलता है। मूर्ति के समान ही “यंत्र कला” में भी सांकेतिक रूप से यही विषय एक अलावा आज कल स्पष्ट हुए हैं।

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