मंत्र-यंत्र एवं तंत्र की सार्वभौमिकता
प्राचीन् आर्य लोगों में यह सशक्त धारणा थी कि सभ्य समाज का मानव बिना ज्ञान की विद्योपार्जन देववाणी संस्कृत में बाह्य भाव से प्रार्थना, स्तुति या उपासना करके मात्र इच्छा है। करना ही परमपिता परमेश्वर से समन्वय स्थापित करने का सशक्त सरल उपाय है। शिवज का यहाँ योग-पन्थ मंत्र-यंत्र-तंत्र रूप में सनातन हिन्दू समाज में प्रचलित हुआ। मंत्र-यंत्र- तंत्र की अद्भुत शक्ति प्रत्यक्ष अनुभूति करने के पश्चात् ही आर्य ब्राह्मणों ने शिव को परमपिता परमेश्वर रूप में स्वीकार कर उनका अभिनन्दन किया। शिव की इस शक्ति से के अ होती में सू होती आर्य सभ्यता गौरव के सवर्वोच्च शिखर पर पहुँच गयी थी। यह मंत्र-यंत्र-तंत्र विद्या अपूर्व एक वैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठापित है।
वैदिक देवता सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि को पुरुष कहा गया है, किन्तु वास्तव में मूल प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक विभिन्न क्षेत्र में शक्ति का केन्द्र बिन्दु है। इसको लेकर चाहे जितने तर्क किए जाएँ, वास्तव में प्रकृति के इस विशाल साम्राज्य अथवा सृष्टि के अन्तर्गत मानव जीव के लिए ब्रह्मा या पुरुष जिस प्रकार धारणा के अतीत है, उसी प्रकार आद्याशक्ति, महामाया, या प्रकृति सृष्टि की अधिकारी महाशक्ति है।

मंत्र

यंत्र

तंत्र
इस रहस्यमयी शक्ति का अनुसंधान मंत्र-यंत्र-तंत्र ने किया। ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म शक्तियों को हम नहीं देख पाते और न ध्वनि तरंगों को ही सुन सकते हैं। अतः मानव शरीर सीमित दायरे में ही कार्य करता है। अपने भीतर की सुप्त शक्तियों को जाग्रत करने की प्रक्रिया है। मन्त्र जप व्यक्तिगत चेतना की अभ्यास क्रिया के अनुसार नयी दिशा देता है। मंत्रजप से गुंजायमान सीधी तथा लयबद्ध ध्वनितरंग उत्पन्न होती है, जो व्यक्तित्व के आन्तरिक ढाँचे को सीधे प्रभावित करती है। इन ध्वनि तरंगों से विद्युत शक्ति पैदा होती है। हमारे पिण्ड की गहराईयों में प्रत्येक मंत्र की ध्वनि किसी न किसी परिणाम में सूक्ष्म ऊर्जा (धनात्मक) उत्पन्न करती है और इस ध्वनि तरंग की एक अपनी ज्यामिति होती है। ॐ, हमारी चेतना का ही विस्तार है। मंत्रों के उच्चारण से ज्यामिति का ही एक नमूना बनता है। हर ध्वनि वृत्ताकार, त्रिकोण, शमन, षट्कोणीय आदि आकार बनाती है। आकृतियाँ मात्र काल्पनिक नहीं है, अपितु ध्वनियों की ज्यामिति है। मंत्र का ज्यामिति आकार ही यंत्र है।
तंत्र उपासना इतनी उदार है कि उसमें आर्य, अनार्य आदि सभी मानव को प्रवेश पाने का अधिकार है। परमपिता परमेश्वर की उपासना की यह विधि वास्तव में सार्वभौमिक मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए एक समय यही मंत्र, यंत्र, तंत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रसारित था। वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म में जब सनातन हिंदुओं के कुछ वर्गों का उपासना विधि में प्रवेश वर्जित था तब यही तंत्र उपासना वैदिक धर्मल के प्रतिवाद स्वरूप सम्पूर्ण भारत में फैला। मंत्र-यंत्र-तंत्र उपासना समस्त सनातन हिन्दू धर्म के वर्षों के लिए अध्यात्म धर्म के लिए प्रशस्त की गई। सामयिक सन्दर्भ में जाति है। कहने से स्त्री और पुरुष मात्र दो ही जातियाँ मनुष्य की मानी गयी है। इसके अलावा रूप मनुष्य समाज के बाहर जाति के पशु, पक्षी, कीट आदि की भांति मानने वाली जाति, ए प्रथा प्रचलित थी। शिव की दृष्टि में अनुसूचित जाति व जनजाति, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य एक ही हैं, उनके पास पहुँचने के लिए एक ही उपासना विधि है वह है मंत्र-यंत्र-तंत्र। ‘मंत्र बुद्ध, महावीर ने स्त्रियों को अध्यात्म प्रगति की दृष्टि से हेय माना, मंत्र-यंत्र ही एक अध्यात्म विधा है, जिसमें शूद्र, स्त्रियों को समान अधिकार ही नहीं दिया गया है अपितु बिना शक्ति के शिव को शव की संज्ञा दी गई है। इस मत के अनुसार प्रकृति ही श्रेष्ठ है, पुरुष निष्क्रिय है। आर्यों (वैदिक) द्वारा देवता की उपासना भी प्रकृति या शक्ति की ही उपासना थी, क्योंकि जीव अर्थात् मनुष्य के बोध में जो यह पुरुप और नारी है, यह दोनों ही प्रकृति या शक्ति ही है, जिसको ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आत्मा, भगवान् या परम पिता परमेश्वर कहा जाता है। वह परम् शक्ति की ही अनुभूति है।