वासना का द्वंद्व: ईश्वर प्राप्ति और सांसारिक इच्छाओं का मार्ग
मनुष्य के मन, चित्त और मस्तिष्क में दो प्रकार की वासनाएँ कार्य करती हैं—एक ईश्वर प्राप्ति की इच्छा रूप एवं कामना रूपी वासना, जो शुभ या धनात्मक वासना है। ईश्वर प्राप्ति के पश्चात् शुभ वासना भी विलीन हो जाती है। किन्तु कितना ही सुख-संपत्ति प्राप्त हो जाने पर भी अशुभ वासना शांत नहीं होती, अपितु संसार जगत की प्रत्येक इच्छापूर्ति के पश्चात् और अधिक बलवती होती जाती है।
जिस प्रकार अग्नि में जितना घी डालते चले जाओ, अग्नि अधिक से अधिक प्रज्वलित ही होती है, बुझती नहीं—वैसे ही विषय भोग, भौतिक सुख, विकार, वासना और विषय त्याग का मार्ग नहीं हो सकता। अशुभ वासना सदैव जगदाभिमुखी होती है।

महत्वपूर्ण बिंदु
वासना के दो प्रकार:
- शुभ वासना:
ईश्वर प्राप्ति की इच्छा और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करती है।
इसका अंतिम उद्देश्य वासना का लोप और शांति प्राप्त करना है। - अशुभ वासना:
सांसारिक सुख, विषय भोग और भौतिक इच्छाओं से जुड़ी होती है।
इसका स्वभाव असंतोषजनक और अनंत है।
अशुभ वासना का स्वभाव:
- जैसे अग्नि में घी डालने से वह और अधिक प्रज्वलित होती है, वैसे ही सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति से वासना बढ़ती है।
- यह मनुष्य को भौतिक सुख की लालसा में बांधती है, परंतु पूर्ण संतोष कभी नहीं देती।
शुभ वासना का महत्व:
- यह आत्मा को शुद्ध और निर्मल करती है।
- ईश्वर प्राप्ति और आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है।
- इसके प्राप्त होने पर यह भी विलीन हो जाती है।
अशुभ वासना के परिणाम:
- मानसिक अशांति और असंतोष।
- विषय भोग में फंसे रहने के कारण आध्यात्मिक प्रगति में बाधा।
समाधान के उपाय:
- आत्मचिंतन:
अपनी इच्छाओं और उनके प्रभावों का अवलोकन करें। - सद्गुरु और साधना:
गुरु के मार्गदर्शन में ध्यान और साधना से मन को नियंत्रित करें। - वैराग्य:
भौतिक इच्छाओं से मुक्ति और सरल जीवन अपनाएं। - शुभ वासना का पोषण:
आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राथमिकता दें।
निष्कर्ष:
अशुभ वासनाओं का त्याग और शुभ वासना का पोषण मनुष्य को सच्चे आनंद और शांति की ओर ले जाता है।
सांसारिक इच्छाएँ अंतहीन हैं, जबकि आत्मिक संतोष का स्रोत भीतर है।