मनुष्य की इच्छा (desire) तथा दुःख का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध हैं | जहाँ इच्छा होगी , वहाँ दुःख भी होगा | इच्छा की पूर्ति सदैव नहीं हो पाती , इच्छा की पूर्ति मनुष्य के प्रारब्ध अनुसार ही पूर्ण अथवा अपूर्ण होती हैं | इच्छा पूरी न होने पर दुःख का कारण बन जाती हैं |
सेवा अथवा कर्तव्य समझ कर किया गया कर्म कैसा भी फल कर्म सिद्धांत प्रारब्ध के अनुसार देने वाला हो मन ,चित्त , को प्रभावित नहीं करता | यही इच्छा- त्याग का स्वरुप हैं | इच्छा एक आतंरिक मन , चित्त की अनुभूति हैं | मन चित्त के संबंध में लोग इसका अनुभव करते हैं |

जैसे लोग भूख , प्यास आदि शारीरिक आवश्यकताओं का अनुभव करते हैं , वैसे इच्छा का भी अनुभव करते हैं | किन्तु इच्छा मानसिक तत्व हैं , जो भूख-प्यास आदि से अलग मायने रखती हैं | भूख -प्यास आदि शरीर की जरूरतें हैं और इच्छाएं भी विकार वासनाओं तृष्णा के रूप में उत्पन्न होती हैं |
इसी लिए इन दोनों को अलग अलग पहचानना अनजान आदमी के लिए अत्यंत मुश्किल का विश्लेषण हैं | इच्छाओं का विश्लेषण करना की जरुरत उनको नहीं होती , इच्छाएँ बुरी होती हैं या अच्छी , इनसे दुःख होता या सुख मिलता हैं , हानि होती हैं या लाभ, आदि तथ्यात्मक बातों को जानने की उनमे जिज्ञासा कदापि नहीं होती |
अधिक से अधिक इच्छाओं की संतुष्टि के लिए मनुष्य हर समय अधिकाधिक धन कमाने में लगा रहता है | उसका दृष्टिकोण बहुत अधिक भौतिकतावादी हो जाता है |इस प्रकार उसका आध्यात्मिक विश्वास काम हो जाता हैं |
मनुष्य की इच्छाओं के बुरे प्रभाव:
- असंतोष: इच्छाओं का बढ़ना व्यक्ति को कभी संतुष्ट नहीं होने देता, जिससे हर स्थिति में उसे कुछ अधूरापन महसूस होता है।
- तनाव और चिंता: इच्छाएं पूरी न होने पर व्यक्ति में तनाव और चिंता बढ़ जाती है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
- अशांत मन: अधिक इच्छाएं मन को अशांत और अस्थिर बना देती हैं, जिससे व्यक्ति का ध्यान और मनोबल कमजोर हो सकता है।
- स्वार्थ और लालच: इच्छाओं की अधिकता व्यक्ति को स्वार्थी और लालची बना सकती है, जिससे उसके नैतिक मूल्यों का पतन हो सकता है।
- रिश्तों में दूरी: अत्यधिक इच्छाएं व्यक्ति को दूसरों से तुलना करने और ईर्ष्या करने पर मजबूर कर सकती हैं, जिससे रिश्तों में दरार और दूरी बढ़ सकती है।