Divine Consciousness And Purification Of The Mind Through Karma

ईश्वरीय चेतना और कर्म से चित्त की शुद्धि

जब मानव में ईश्वरीय चैतन्य सूक्ष्म शक्ति जप-तप , प्रार्थना आदि से अंतर में जाग्रत एवं कार्यशील हो उठती हैं तो भक्त , साधक के चित्त में संचित पाप राशि को जलाकर भस्म कर देती हैं।  इसलिए आतंरिक जाग्रत ईश्वरीय चेतन सूक्ष्म शक्ति को अग्नि की उपमा दी गई हैं किन्तु भक्त , साधक , सात्विक-मनुष्य , शिष्य का यह कर्तव्य होता हैं कि उस दिव्य-अग्नि में और अधिक विषय संस्कारों की आहूतियाँ देते रहने की व्यवस्था से स्वयं को बचाए अर्थात ईश्वर की दिव्य इच्छा के अनुसार उसकी सेवा समझकर कर्तव्य बुद्धि से कर्म करता हुआ संस्कार संचय का क्रम रोक दे।  

महत्वपूर्ण बिंदु

  1. ईश्वरीय चैतन्य का जागरण – जप-तप और प्रार्थना से ईश्वरीय चैतन्य जाग्रत होती है, जो चित्त की पाप राशि को जलाकर भस्म कर देती है।
  2. दिव्य अग्नि की उपमा – ईश्वरीय चेतना को अग्नि के रूप में वर्णित किया गया है, जो पापों को समाप्त करती है।
  3. सात्विक कर्म और संस्कार संचय – भक्त का कर्तव्य है कि वह ईश्वर सेवा को कर्तव्य समझकर कर्म करें और संस्कार संचय का क्रम रोकें।
  4. संस्कारों की आहुति से बचाव – भक्त को अपनी आहुति से बचने के लिए दिव्य इच्छा के अनुसार कार्य करना चाहिए।
  5. कर्म के प्रभाव से चित्त शुद्धि – दिव्य कर्तव्य से कर्म करने से चित्त की शुद्धि होती है, और वह स्थिरता की ओर बढ़ता है।
Shopping Cart
Scroll to Top
Enable Notifications OK No thanks