मनुष्य की दुविधा

मनुष्य में एक ओर शरीर के प्रति आस्तिक हैं तो दूसरी ओर वह ईश्वर को भी प्राप्त करना चाहता हैं।
ईश्वर के लिए हम सारांश में कह सकते हैं कि :

  • ईश्वर की परिभाषा हो ही नहीं सकती। उसे विचारों , भावों , आकारों तथा शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता।
  • मनुष्य अपने स्वाभाव से विवश हैं फिर भी वह ईश्वर को समझने या समझाने की चेष्टा किया करता हैं।
  • भक्त और साधक को ईश्वर की साधना- आराधना करने के लिए किसी आधार की आवश्यकता हैं , जब कि ईश्वर निराकार तथा निर्गुण हैं। इसलिए वह किसी प्रतिमा , अग्नि , जल , सूर्य, विचार , भाव या पुस्तक आदि का सहारा लेकर यह सब करने का प्रयास करता हैं।
  • जिसकी जैसी श्रद्धा या चित्त की स्थिति हैं , उसको वैसा करने दो। समय पर मन , मस्तिष्क और चित्त की अवस्था बदलने से उसकी ईश्वर के प्रति धरणा भी बदल जाएगी।

कुछ मुख्य बिंदु

मनुष्य के ईश्वर-प्राप्ति की चेष्टा को संक्षेप में समझाने के लिए कुछ बिंदु निम्नलिखित हैं:

  • शरीर और आत्मा का द्वंद्व – मनुष्य एक ओर शरीर की आवश्यकताओं में उलझा है और दूसरी ओर ईश्वर की प्राप्ति की आकांक्षा रखता है।
  • ईश्वर की परिभाषा का अभाव – ईश्वर को विचारों, शब्दों या आकारों में सीमित नहीं किया जा सकता, वह अनंत और अपरिभाषेय है।
  • मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासा – अपने स्वभाव के कारण मनुष्य लगातार ईश्वर को समझने का प्रयास करता है।
  • सीमाओं के बावजूद चेष्टा – सीमित समझ के बावजूद मनुष्य ईश्वर की अनुभूति पाने की कोशिश करता है।
  • अज्ञात की खोज – ईश्वर के प्रति मानव की खोज अज्ञात को जानने और अनुभव करने की एक यात्रा है।
  • आस्था और तर्क का संतुलन – मनुष्य आस्था और तर्क के बीच संतुलन बनाते हुए ईश्वर को पाने की चेष्टा करता है।
  • विचारों की अपूर्णता – ईश्वर को विचारों में बांधना असंभव है, क्योंकि वह मानव बोध से परे है।
  • आत्मा की पुकार – ईश्वर की खोज वास्तव में मनुष्य की आत्मा की पुकार है जो उसे अपने स्रोत की ओर ले जाती है।
  • असीम का अनुभव – ईश्वर की अनुभूति सीमित मानव अनुभव से परे होती है, जो केवल आत्मा की गहराई में ही संभव है।

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