आजकल आध्यात्मिकता का वाद-विवाद का एक विशाल अखाडा सा ही हर जगह दृष्टिगोचर हो रहा हैं | ज्ञानी गण ईश्वर के भक्तों , साधकों की खिल्ली उड़ाते हुए देखे गए हैं। भक्त ज्ञानियों को प्रेमविहीन शुल्क वाचक ज्ञानी कहते हैं , योगी योग को एकमात्र उपाय बताते हैं तथा कर्मयोगी कर्म करने को ही ईश्वर की पूजा आराधना मानते हैं। सब एक दूसरे से वाद-विवाद करते , अपने मार्ग का मण्डन तथा दूसरे का खण्डन करते देखे जा सकते हैं।
उसका अर्थ यह हुआ कि अभी तक साधन और साधना के अंतर को भक्तगण व साधकगण समझ ही नहीं पाए हैं। एक ही प्रकार की साधना का अभ्यास करने वाले विभिन्न साधकों का साधना स्तर भिन्न – भिन्न होता हैं। एक ऐसा सूक्ष्म स्तर भी हो सकता हैं , जब साधना अपना स्वरुप त्यागकर साधन हो जाती हैं। तब उसमें स्वाभाविकता आ जाती हैं। यह शक्ति जाग्रत हुए बिना संभव नहीं , क्योंकि तभी साधना का आधार प्रयत्न से ऊपर उठकर, चित स्थिति के अनुरूप प्रकट होने लगता हैं। इस स्वाभाविक प्रकटीकरण को ही क्रिया कहा जाता हैं। यही साधना हैं। प्रयत्न के स्थान पर स्वाभाविकता बस यही अंतर आ जाता हैं। जब आधार चिंता स्थिति हो जाता हैं , तो उसके अनुरूप अन्य साधनाओं की क्रियाएँ भी प्रकट होने लगती हैं , जिसमें साधनाओं और मार्गों का विवाद समाप्त हो जाता हैं।
यदि एक विषय में राग-द्वेष हैं तो अन्य विषय में भी होगा तथा कुछ विषयों में द्वेष भी अवश्य होगा। ऐसे ही तथाकथित भक्त , साधक , अपनी साधन-शैली के प्रति आस्तक होने से वाद विवाद में उलझते हैं, उसे ही एक मात्र सर्वश्रेष्ठ उपाय निरूपित करते हैं एवं उसी में लगे रहकर आस्तिक को पुष्ट करते और इस प्रकार अदृश्य पाप में संलग्न होकर भक्ति के शिखर पर पहुँचने से वंचित हो जाते हैं।

कुछ मुख्य बिंदु
आध्यात्मिकता पर हो रहे विभिन्न दृष्टिकोणों को एक पंक्ति में समझाने के लिए कुछ बिंदु निम्नलिखित हैं:
- ज्ञानियों का दृष्टिकोण – ज्ञानियों का मानना है कि ईश्वर को जानने के लिए तर्क और बुद्धि का प्रयोग आवश्यक है।
- भक्तों का मत – भक्त ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण को आध्यात्मिकता का सर्वोच्च रूप मानते हैं।
- योगियों का नज़रिया – योगियों के अनुसार ध्यान और योग से ही ईश्वर की अनुभूति संभव है।
- कर्मयोगियों की मान्यता – कर्मयोगी मानते हैं कि अपने कर्तव्यों का पालन करना ही ईश्वर की सेवा है।
- वाद-विवाद का कारण – अलग-अलग दृष्टिकोणों के कारण ही आध्यात्मिकता पर मतभेद और वाद-विवाद उत्पन्न हो रहे हैं।
- प्रेमविहीन शुल्क वाचक ज्ञानी – भक्तजन ज्ञानियों को बिना प्रेम और भाव के केवल शास्त्रों का वाचन करने वाला मानते हैं।
- एकता का अभाव – हर पथ पर चलने वाले अपने मार्ग को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, जिससे एकता की कमी होती है।
- ईश्वर-प्राप्ति के विभिन्न मार्ग – सभी दृष्टिकोण ईश्वर-प्राप्ति के विभिन्न मार्ग प्रस्तुत करते हैं, जिनका अंततः उद्देश्य एक ही है।