मनुष्य के भीतर का द्वंद्व ही असली पीड़ा है

मृत्यु स्वयं उतना कष्ट नहीं देती , जितना कि मृत्यु का भय दुखी बनाता हैं | व्यापार में घाटा हो जाने पर भी एक व्यापारी के सामने ऐसा अवसर नहीं आता कि उसे जीवन व्यापन में कठिनाइयाँ , असुविधा हो तो भी वह इतनी चिंता करता हैं कि सुखकर काँटा हो जाता हैं | उस घाटे वाले व्यापारी की जो स्थिति हैं , उससे भी गिरी और बत्तर स्थिति के मजदूर हँसते-खेलते प्रसन्नता का जीवन बिताते हैं |

घाटे वाले व्यापारी को सांसारिक विपत्ति वास्तव में नहीं आई , केवल उसके मन -चित्त (mind , mind stuff pyscho) में विपत्ति के संचित संस्कार प्रारब्धानुसार संचालित हैं , वही अपना कार्य करते हैं | प्रारब्ध से ही मनुष्य का भाग्य बनता हैं |

ईर्ष्या , द्वेष , घृणा , शोक , चिंता , निराशा , भय -आशंका , हिंसा , लोभ -लालच , छल -कपट , अभिमान आदि कुरीतियों , दुर्भावों के कारण कितने मनुष्य प्रायः बुरी तरह व्याकुल रहते हैं , उनके मन , चित्त में सदा एक बेचैनी , अनुकुलता , अशांति , पीड़ा उत्पन्न होती रहती हैं , जिसके कारण उनका मन लोक , चित्त -लोक बहुत ही नीरस , अशुद्ध , धुंधला एवं अंधकार पूर्ण हो जाता हैं | उन्हें हर पल आतंरिक अशांति घेरे रहती हैं |

मनुष्य के भीतर के द्वंद्व के बुरे प्रभाव:

  • मानसिक तनाव: द्वंद्व की स्थिति से व्यक्ति निरंतर मानसिक तनाव में रहता है, जिससे मन अशांत और अस्थिर हो जाता है।
  • निर्णय क्षमता में कमी: आंतरिक द्वंद्व के कारण व्यक्ति की निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है, जिससे उसे सही और गलत में भेद करना कठिन होता है।
  • नकारात्मकता की संभावना: लगातार द्वंद्व में फंसे रहने से व्यक्ति में नकारात्मक विचार की भावना बढ़ जाती है।
  • शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: मानसिक द्वंद्व का प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है, जैसे अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, और सिरदर्द।
  • संबंधों में दरार: आंतरिक द्वंद्व से व्यक्ति चिड़चिड़ा और अस्थिर हो सकता है, जिससे रिश्तों में गलतफहमी और दूरी पैदा हो सकती है।

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