Selfish Happiness: Temporary Joy at the Cost of Other’s Suffering

ज्यादातर व्यक्ति परिवार और समाज में ऐसे होते हैं, जो स्वयं केवल अपना ही सुख चाहते हैं, लेकिन दूसरों के सुख का ख्याल बिल्कुल नहीं रखते। इन लोगों को केवल अपने और अधिक से अधिक अपने परिवार, जैसे सगे भाई-बहनों के स्वार्थ का ही ध्यान रहता है।

इस सुख को प्राप्त करने के लिए ये स्वेच्छाचारिता और मनमाने कर्म करते हैं, भले ही इससे दूसरों को दुःख और पीड़ा हो। इस प्रकार के कर्म अशुभ कर्म कहलाते हैं। ऐसे लोग केवल अपने सुख के लिए ही दूसरों को मारपीट कर, सताकर अपने सुख की झोली भरते रहना चाहते हैं और इसमें वे पूर्ण रूप से सफल भी हो रहे हैं।

लेकिन ऐसे कर्म करके भला सुख कब मिलता है? ऐसे लोगों को तो नरक में भी जगह नहीं मिलती, सुख मिलना तो बहुत दूर की बात है। जिनकी बुद्धि अत्यंत बुरी प्रवृत्ति की होती है, उन्हीं के विचार में इस प्रकार सुख प्राप्त करने की बात आती है। वरना, मनुष्य योनि में आकर हर आत्मा को इतना बोध तो हो ही जाता है कि दूसरों को दुःख पहुँचाकर अपने जीवन को कदापि सुखी और शांतिमय नहीं बनाया जा सकता।

महत्वपूर्ण बिंदु

  • स्वार्थी प्रवृत्ति – कुछ लोग केवल अपने और अपने परिवार के सुख के बारे में सोचते हैं, दूसरों की भावनाओं की परवाह नहीं करते।
  • मनमाने कर्म – अपने स्वार्थ और सुख की पूर्ति के लिए ये लोग गलत कार्य करते हैं, भले ही इससे दूसरों को दुःख और कष्ट हो।
  • अशुभ कर्म – दूसरों को तकलीफ देकर जो सुख प्राप्त किया जाता है, वह नकारात्मक और अशुभ माना जाता है।
  • क्षणिक सुख – ऐसे कर्मों से मिलने वाला सुख अस्थायी होता है, यह न तो स्थायी शांति देता है और न ही वास्तविक संतोष।
  • नरक से भी बुरा परिणाम – स्वार्थी और निर्दयी प्रवृत्ति के लोगों को सुख तो दूर, नरक में भी स्थान नहीं मिलता।
  • बुद्धि की विकृति – केवल बुरी प्रवृत्ति वाले लोग ही दूसरों के दुःख पर अपने सुख की कल्पना कर सकते हैं।
  • सच्चा सुख और शांति – वास्तविक सुख और मानसिक शांति केवल परोपकार और दूसरों की भलाई करने से ही प्राप्त हो सकती है।

निष्कर्ष:

  • कंप्यूटर कभी भी मानव मस्तिष्क की दिव्य क्षमताओं की बराबरी नहीं कर सकता।
  • मानव मस्तिष्क एक चमत्कारी चेतन यंत्र है, जो ऊर्जा और चेतना के संयुक्त प्रभाव से कार्य करता है।
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