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गृहस्थ के पुत्र-कन्या पालन के आदर्श कर्तव्य
पुत्र , कन्या के प्रति गृहस्थ के निम्न लिखित कर्म और कर्तव्य है:
चार वर्ष की अवस्था तक पुत्रों और पुत्रियों को खूब लाड-प्यार करना चाहिए फिर सोलह वर्ष की अवस्था तक उन्हें नानाविध सद् गुणों , संस्कार , सद्विचार , नैतिकता , सदाचार रहना , सत्य कर्म , सत्व गुणी , शुद्ध – प्रवृत्तियाँ ,आत्म बल , आत्म संतुलन , क्षमता , अहिंसा , नि: स्वार्थ-प्रेम और विद्याओं की शिक्षा देनी चाहिए। जब वे २० वर्ष के हो जाए , तो उन्हें किसी कर्म-कौशल में लगा देना चाहिए। तब पिता को चाहिए कि वह उन्हें बराबरी का समझकर उनके प्रति स्नेह प्रदर्शन करें , भय कदापि नहीं। ठीक उसी तरह कन्याओं का भी लालन पालन करना चाहिए , उनकी शिक्षा बहुत ध्यान पूर्वक होनी चाहिए।

कुछ मुख्य बिंदु
- शुरुआती वर्षों में लाड-प्यार – चार वर्ष की आयु तक पुत्र और पुत्री को प्रेमपूर्वक पालना चाहिए।
- सद्गुणों और संस्कारों की शिक्षा – सोलह वर्ष की आयु तक सद्गुण, नैतिकता, और आत्म-संतुलन का विकास करना चाहिए।
- शिक्षा और प्रवृत्ति – सत्य, अहिंसा, नि:स्वार्थ प्रेम, और विद्याओं की शिक्षा देना आवश्यक है।
- कर्म-कौशल में प्रोत्साहन – 20 वर्ष की आयु में उन्हें किसी कौशल या कार्य में लगा देना चाहिए।
- बराबरी का व्यवहार – इस उम्र के बाद बच्चों को बराबरी का दर्जा देकर स्नेहपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
- कन्याओं की समान परवरिश – पुत्रियों को भी समान शिक्षा और ध्यान देकर विकसित करना चाहिए।
- भयमुक्त परवरिश – बच्चों के साथ स्नेह का वातावरण बनाना चाहिए, भय का नहीं।