सुख इंसान को कैसे मिल सकता है? किसी को धन के अभाव का दुःख है तो कोई धन की सुरक्षा को लेकर भयभीत है। चारों ओर संकट, कठिनाइयों और समस्याओं से भरी हुई गठरी है।
आजकल ज्यादातर लोगों को धन-संपत्ति की बहुलता के कारण परिवारजनों में आए विवाद तथा उनके परस्पर झगड़े-बखेड़े परेशान किए हुए हैं। परिवार में ही कोई ईर्ष्या की अग्नि में जल रहा है तो कोई द्वेष से पीड़ित है।
किसी के दांपत्य जीवन में वैमनस्य है, जिसके कारण बच्चों में निराशा अंदर घर करती जा रही है। कोर्टों में तलाक के प्रकरण सभी समाज में द्रुत गति से बढ़ते जा रहे हैं। थानों में रोज़ सच्ची-झूठी रिपोर्ट दर्ज हो रही हैं।
सुख हो भी कैसे सकता है? जब तक सुख का आधार संसार के पदार्थ, लोभ, लालसा, राग, द्वेष, अभिमान हैं, दुःख ही मिलेगा। संसार मायामय तथा निरंतर परिवर्तनशील है। संसारी हो या साधक, हर कोई कहीं न कहीं प्रपंच में अटका है। यह प्रपंच आंतरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के हैं।
सबकी सुख की अपनी-अपनी कल्पना है। कोई शास्त्रों में सुख ढूंढता है, तो कोई देव मंदिरों में, तो कोई जगत भोगों और वासना में सुख की तलाश करता है। कोई त्याग में सुख देखता है। जब तक किसी भी रूप, गुण या परिस्थिति में जगत अभिमुख हैं, सुख कहाँ? बीच-बीच में सुख का आभास अवश्य होता है।
संसार दुःख का कारण नहीं है, किन्तु मनुष्य ने अपनी अनंत इच्छाओं की पूर्ति के लिए इसे दुःख का कारण बना लिया है। हर व्यक्ति को उसके प्रारब्ध अनुसार ही सुख-दुःख प्राप्त होता है, अन्यथा जगत केवल सुख-दुःख के प्रकट होने का आधार भर है। इसका उत्तरदायित्व उपासक-साधक पर है कि वह जगत को दुःख का कारण बनाना चाहता है या अपने दुःख की निवृत्ति का साधन।
वास्तविक कारण मन-मस्तिष्क का भ्रम है, जो जन्म-जन्मांतर से मनुष्य के अंतर में अपनी जगह बनाए हुए है। इसी भ्रम के कारण अहंकार उदय हो जाता है। जगत को दुःख का कारण मानने का कारण भी भ्रम ही है। भ्रम निवृत्ति ही आध्यात्मिक पथ का लक्ष्य है।

मुख्य बिंदु
- सुख की विभिन्न परिभाषाएँ – प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुख की अलग-अलग कल्पना होती है, कोई धन में, कोई भोग-विलास में, तो कोई त्याग में सुख ढूंढता है।
- धन और संपत्ति की भूमिका – धन की अधिकता भी कई बार पारिवारिक विवादों, ईर्ष्या और द्वेष का कारण बनती है, जिससे वास्तविक सुख प्राप्त नहीं होता।
- संसार की परिवर्तनशीलता – संसार निरंतर परिवर्तनशील है, इसलिए जो भी सुख बाहरी वस्तुओं पर आधारित है, वह अस्थायी होता है।
- इच्छाओं का अंतहीन चक्र – मनुष्य की अनंत इच्छाएँ ही उसके दुःख का मूल कारण हैं, क्योंकि उनकी पूर्ति कभी पूर्ण नहीं हो सकती।
- सुख-दुःख का आधार प्रारब्ध – हर व्यक्ति को उसके प्रारब्ध के अनुसार ही सुख-दुःख प्राप्त होते हैं, संसार केवल उनके प्रकट होने का माध्यम है।
- मन और भ्रम की भूमिका – वास्तविक दुःख बाहरी कारणों से नहीं, बल्कि मन के भ्रम और अहंकार से उत्पन्न होता है।
- सच्चे सुख का मार्ग – जब तक व्यक्ति आंतरिक शांति और आध्यात्मिकता की ओर नहीं बढ़ता, तब तक वह वास्तविक सुख प्राप्त नहीं कर सकता।
- भ्रम की निवृत्ति ही समाधान – सुख और दुःख का मूल कारण भ्रम है, इसलिए वास्तविक सुख पाने के लिए इस भ्रम को दूर करना आवश्यक है।
निष्कर्ष:
- कंप्यूटर कभी भी मानव मस्तिष्क की दिव्य क्षमताओं की बराबरी नहीं कर सकता।
- मानव मस्तिष्क एक चमत्कारी चेतन यंत्र है, जो ऊर्जा और चेतना के संयुक्त प्रभाव से कार्य करता है।